- रमेश क्षितिज
घर लौटता आदमी – (घर फर्किरहेको मानिस)
हिन्दी भावानुवाद: राजकुमार श्रेष्ठ
जीवन तो कैसे भी हो गुजरता ही है
किसी के प्रेम में जैसे अभाव और वियोग में भी
कितनी ही ठंडिया आई
यादों की नरम धुप तापकर बैठे रहा
और कितने ही चैत के आँधियों में
सुके पत्ते की तरह उड़ता रहा मन
झड़ी फटे दिन – बर्खान्त में सुखाया
तुमने तोहफ़े में भेँट की
विश्वप्रसिद्ध व्यक्तियों की आत्मकथाओं से भरि पुस्तकें
और जन्मदिन के तोहफ़े में भेँट किये कपड़ें
सावन के तालाब-सा देखता हूँ आँसुओ से भरि तुम्हारी आँखे
और वह दिन याद करता हूँ
पहाड़ी का अकेला पेड़ देखता हूँ
और दूर कहीं प्रतीक्षारत तुम खड़ी हो सोंचता हूँ
जब देखता हूँ यात्रा पे कहीं समुद्र
तुम्हारे विश्वास और तुम्हारे होने का आभास सोचता हूँ
छुटकर भी छुट ही न सका मैं
हवाओं के झोंको को तुम्हारा निश्वास समझता हूँ
तुम्हारी चंचलता और ठहाकों को सुबह की धूप समझता हूँ
जीवन में इतने बड़े आघात सहकर भी
दुखा तक कह न सका मै
सिने के भीतर निरंतर जाते रहे भूकम्प के झटके फिर भी
मैं मौन,शान्त,एक दम ही निस्पृह-सा होते रहा
अहो ! करोंड़ों लोगों की भीड़ में
किसी को पता ही नहीं चलेगा इक अदभूत कहानी
फुर्सत के वक़्त किवाड़ बन्द कर अकेले कभी-कभी
कल्पना करता हूँ,फिर दुहुराता हूँ समय का हिसाब-किताब
क्या नहीं मिलता क्या नहीं मिलता
ऐसे करता तो अच्छा होता
वैसे बोलता तो अच्छा होता कहता हूँ
वैसे ही हैं पहली बार मुलाकात हुवे थे जहाँ
वैसे ही है रास्ते और लोगों की चहल पहल
सिर्फ तुम्हारे अनुपस्थिति के अँधेरे पे खो जाते हैं सब रंग
सोना पिघलकर लतपती-सी मुस्कुराते हैं
सुनहरी धूप की पर्वत
मन्दिर पे बजते रहते हैं घंटियों की ध्वनि
और रेंगते रहता है कीड़ो की तरह समय
मै बस खोये रहता हूँ सवालों के चारकोस झाड़ियों पे
अविस्मर्णीय इक गर्भवती साँझ
जन्म देगी कहता था इक सुन्दर सुबह को !
क्यों चली हवा अचानक और उड़ा ले गयी घोंसला ?
क्यों बरसे ओले और गिराए गुलाब के पत्रों को जमीं पर ?
क्यों फटा बादल और तोड़े गरीबों के छत?
जीवन में कितने अर्थपूर्ण हैं
किसी आदमी का अभाव या उपस्थिति !
अरसों से
तुम्हारी राह देख रहें रास्तो पे न चलकर गई तुम
इक पुराने किताब के सफ़हा यूँ हीं पलट रहा था साँझ पे
सुख चूका फूल देखकर
सिल्विया,तुम्हारी यादें ताजा हो खिल उठी आज !!
रमेश क्षितिज
घर लौटता आदमी – (घर फर्किरहेको मानिस)
हिन्दी भावानुवाद: राजकुमार श्रेष्ठ
घर लौटता आदमी – (घर फर्किरहेको मानिस)
हिन्दी भावानुवाद: राजकुमार श्रेष्ठ
जीवन तो कैसे भी हो गुजरता ही है
किसी के प्रेम में जैसे अभाव और वियोग में भी
कितनी ही ठंडिया आई
यादों की नरम धुप तापकर बैठे रहा
और कितने ही चैत के आँधियों में
सुके पत्ते की तरह उड़ता रहा मन
झड़ी फटे दिन – बर्खान्त में सुखाया
तुमने तोहफ़े में भेँट की
विश्वप्रसिद्ध व्यक्तियों की आत्मकथाओं से भरि पुस्तकें
और जन्मदिन के तोहफ़े में भेँट किये कपड़ें
सावन के तालाब-सा देखता हूँ आँसुओ से भरि तुम्हारी आँखे
और वह दिन याद करता हूँ
पहाड़ी का अकेला पेड़ देखता हूँ
और दूर कहीं प्रतीक्षारत तुम खड़ी हो सोंचता हूँ
जब देखता हूँ यात्रा पे कहीं समुद्र
तुम्हारे विश्वास और तुम्हारे होने का आभास सोचता हूँ
छुटकर भी छुट ही न सका मैं
हवाओं के झोंको को तुम्हारा निश्वास समझता हूँ
तुम्हारी चंचलता और ठहाकों को सुबह की धूप समझता हूँ
जीवन में इतने बड़े आघात सहकर भी
दुखा तक कह न सका मै
सिने के भीतर निरंतर जाते रहे भूकम्प के झटके फिर भी
मैं मौन,शान्त,एक दम ही निस्पृह-सा होते रहा
अहो ! करोंड़ों लोगों की भीड़ में
किसी को पता ही नहीं चलेगा इक अदभूत कहानी
फुर्सत के वक़्त किवाड़ बन्द कर अकेले कभी-कभी
कल्पना करता हूँ,फिर दुहुराता हूँ समय का हिसाब-किताब
क्या नहीं मिलता क्या नहीं मिलता
ऐसे करता तो अच्छा होता
वैसे बोलता तो अच्छा होता कहता हूँ
वैसे ही हैं पहली बार मुलाकात हुवे थे जहाँ
वैसे ही है रास्ते और लोगों की चहल पहल
सिर्फ तुम्हारे अनुपस्थिति के अँधेरे पे खो जाते हैं सब रंग
सोना पिघलकर लतपती-सी मुस्कुराते हैं
सुनहरी धूप की पर्वत
मन्दिर पे बजते रहते हैं घंटियों की ध्वनि
और रेंगते रहता है कीड़ो की तरह समय
मै बस खोये रहता हूँ सवालों के चारकोस झाड़ियों पे
अविस्मर्णीय इक गर्भवती साँझ
जन्म देगी कहता था इक सुन्दर सुबह को !
क्यों चली हवा अचानक और उड़ा ले गयी घोंसला ?
क्यों बरसे ओले और गिराए गुलाब के पत्रों को जमीं पर ?
क्यों फटा बादल और तोड़े गरीबों के छत?
जीवन में कितने अर्थपूर्ण हैं
किसी आदमी का अभाव या उपस्थिति !
अरसों से
तुम्हारी राह देख रहें रास्तो पे न चलकर गई तुम
इक पुराने किताब के सफ़हा यूँ हीं पलट रहा था साँझ पे
सुख चूका फूल देखकर
सिल्विया,तुम्हारी यादें ताजा हो खिल उठी आज !!
रमेश क्षितिज
घर लौटता आदमी – (घर फर्किरहेको मानिस)
हिन्दी भावानुवाद: राजकुमार श्रेष्ठ
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