Wednesday, December 25, 2013

लड़ाकु का रुमाल (लडाकुको रुमाल)

- रमेश क्षितिज
(हिन्दी भावानुवाद: राजकुमार श्रेष्ठ)

 स्वेच्छिक अवकाश लिए घर लौट रहा पूर्व लड़ाकु
भूल गया है रास्ते से सटा हुआ झोपड़ी-सी चाय की दूकान पे
पसीना पोंछकर रखा रुमाल

जाने किस ख़याल में था वो
और भूल गया अश्कों के अल्फ़ाज से लिपिबद्ध किए हुए
अनेक कहानियों का एक संग्रह जैसा
बूंद-बूंद पसीने से भीगा हुआ
कोई गम्भीर तेलचित्र-सा

और तो ओर क्यान्टोनमेंट के उदास दिनों में
कभी हाथ में कभी गले में
कभी न छुटने वाला साथी जैसा –रुमाल

घर पहुँचकर देखेगा वो
किल में टंगा हुआ स्कूल का बस्ता
जो की वो छोड़ गया था आँगन में अरसों पहले
और शामिल हुआ था सैन्य तालीम में

देखेगा वो शहीद घोषित की गई निर्दोष बहन की तस्वीर
उसके ऊपर खोशीद:तस्बीह

याद करेगा – जनता की मुक्ति के लिए खुद क़ुबूल की सदस्यता
कुछ पुछ रहे हो जैसे लगेगें तस्वीर के
चम्किले आँखें

बिचारा कहते हुए दुलारने वाली दादीमाँ नहीं होंगी अब
नहीं होंगे रोकर रास्ता रोकने वाला कोई
साँझ के फ़लक से टुटा अख्तर-सा
खो जायेंगे ख़ुशी अचानक
सामने होंगे जटिल सवाल-से माँ-बाप के चेहरे
बेटा ! कहाँ लहरा रहा है इंक़लाब का झंड़ा ?

आँखों में छलक-छलक छल्केंगे आँसू
फिर ढूंढेंगा वो यही रुमाल !
स्वेच्छिक अवकाश लिए घर लौट रहा पूर्व लड़ाकु
भूल गया है रास्ते से सटा हुआ झोपड़ी-सी चाय की दूकान पे
पसीना पोंछकर रखा रुमाल

रमेश क्षितिज
घर लौटता आदमी - (घर फर्किरहेको मानिस)

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