Tuesday, August 4, 2015

साया

याद हैं – अभी भी याद हैं
शदीद गर्मी के वह दिन

चढ़ते हुए वादियों में आए थे तुम
अलसाते हुए साये में देखा दूर उफ़ुक
पोछा माथे का पसीना और दूर कि गर्दे सफ़र

याद करता हूँ – नदी-सा तुम्हारा सफ़र
और, मेरा साहिल-सा जीवन – एक साथ याद करता हूँ !


मन में कितनी तसल्ली थी
थोड़ी देर ही सही साया तो हुआ मैं तुम्हारा
लेकिन फिर उठकर चले गए तुम अपनी मंजिले मक्सूद

मैं इक साया
दरख्त से दूर मेरा कोई वजूद नहीं
चाहकर भी चल नहीं सकता किसी प्रिय मुसाफ़िर के संग

खुद को अचल खड़ा देखता हूँ
तुम्हे दूर – बहुत दूर जाते हुए देखता हूँ

(घर लौट रहा आदमी, अनुवाद : राजकुमार श्रेष्ठ )


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